Tuesday, February 23, 2021

सब कुछ नया

        अपनी यादों को कुरेदते हुए एक नितान्त भोलेपन से पूर्ण घटना का वर्णन करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा .  प्रस्तावना में कुछ पृष्ठभूमि तयार कर देना आवश्यक है.
         किसी सुव्यवस्थित ( सुचारु रूप से चलते हुए ) प्रतिष्ठान या कार्यालय में आपका प्रवेष किसी को विस्थापित करते हुए होता है और आप जाने वाले का काम  आसानी से संभाल लेते हैं क्योंकि उसी तरह का काम आप करते रहे हैं, बहुत ही सामान्य सी घटना है. यह बहुत ही साधारण सा परिवर्तन है और परिवर्तन हमेशा भले के लिये होता है, यह मेरा मानना है तथा अनुभव सिद्ध है. हाँलाकि मजे से चलते हुए आपके जीवन में थोड़ी हलचल जरूर होती है, आप विचलित होते  हैं, अपने मित्रों से बातचीत में बास के लिए अपनी नाराजगी भी प्रकट कर देते हैं. मगर कुछ समय बीतने के बाद महसूस करते हैं कि आपका भला हुआ है. कुछ नया सीखने को मिला है, और बदलाव करने वाले के लिए धन्यवाद महसूस करते हैं ( प्रकट नहीं कर पाते). 
       सुचारु चलते हुए प्रतिष्ठान में यदि आप पहली बार भी काम करना शुरू कर रहे हैं, तो एक दो दिन कुछ तकलीफ हो सकती है पर जलदी ही सब ठीक हो जाएगा, आपके लिए वह काम नया होने के बावजूद आप नये बने मित्रों के सहारे सब सीख लेते हैं और एडजस्ट हो जाते हैं.
   अब कल्पना कीजिए कि आप जहां काम करने केलिये पहुँचे हैं वहाँ कर्मचारी नये नये पहले पहल काम पर लगे है, मतलब नई भरती, जहाँ काम करने आए हैं वह प्रतिष्ठान भी नया है, सब कुछ वहाँ व्यवस्थित करना है . काम पर लगे अन्य लोग भी नये हैं जिनको  काम के सम्बन्ध में परम्परागत जानकारियाँ नहीं हैं. उस पर से तुर्रा यह कि उत्पादन में लगने वाली टेक्नालाजी एकदम नई है जिसके विषय में जानकारी सीमित है, मतलब सभी को सीखना है. आपका क्या हाल होगा?
        तो हुआ यह कि मेदक फैक्टरी-- नई जगह, नया ऐस्टैब्लिशमैंट,  सीएनसी लेथ -- नई टेक्नालाजी -- पर काम हो रहा था,  एक ग्रूव बनाना था 1.5 मिमी का, समस्या यह आई कि ग्रूव के लिये पार्टिंग टूल में लगाने के लिए कार्बाइड टिप-- नई टूलिंग व्यवस्था -- केवल 1 या 2 मिमी के स्टैन्डर्ड साइज़ में ही उपलब्ध है . ग्रूव कैसे बने? नई भर्ती स्टाफ ने हाथ खड़े कर दिए -- नहीं बन सकता. उसे टूलिंग केलिए परम्परागत हाई स्पीड स्टील मेटीरियल के बारे में जानकारी नहीं है. एक राड कुछ मुड़ गई थी, उसे उठाकर एक किनारे रख दिया कि यह काम में नहीं आ सकती. पूछा गया कि क्यों -- तो उत्तर मिला यह टेढ़ी है, अरे भले आदमी इसे सीधा क्यों नहीं कर लेते? परम्परागत जानकारी का अभाव !  
    धीरे धीरे परम्परागत जानकारियों और नई टेकनालाजी के सम्मिश्रण से काम आगे बढ़ा .
          
          

Thursday, February 18, 2021

उर्वारुक

उर्वारुक  urvaruk

     वसन्त पंचमी ! आई और चली गई !! 
दिल्ली में इस वर्ष कुछ अधिक ही शीत पड़ गई . माघ शुक्ल पंचमी अपने निर्धारित क्रम में आई, १६ फरवरी का प्रातःकाल सच में वसंत लेकर आया, लगा अब शीत गई. कमरे की खिड़कियाँ खोलदी थीं. दिल्ली आने के पूरे चार मास बाद. बाहर वसंत था. तड़के सवेरे ही स्नान हो  गया और स्वेटर नहीं पहना गया. कितना सुखद अनुभव, आनन्द ही आनन्द.
        पर यह शीत से मुक्ति का आनन्द अनुभव अल्पजीवी निकल गया.  एक घण्टे बाद ही धुन्ध कोहरा सा छा गया. खिड़कियाँ फिर से बन्द कर देनी पड़ीं.
हाँ, वसन्त ने झलक तो दिखला दी थी. वही वसन्त जिसके लिए कहा जाता है कि इस दिन तुछ न कुछ लेखन होना चाहिये.
         लिखने के बारे में सोचा था. किस माध्यम से लिखा जाय कि सर्व सुलभ हो. व्हाट्स ऐप सीमित लेख को ही प्रेषित करने की अनुमति देता है. फेसबुक में लिखे का संचरण फेसबुक में ही होगा. 
        समाधान दिया आदि चिट्ठाकार आलोक जी ने. ब्लाग में लिखिये.  समझ मे आ गया और याद आया कि 2007 में जब e-mail ID बनी थी तभी ब्लाग में भी प्रवेश की कोशिश की गई थी, ढूँढा, मिला, urvaruk नाम से, 18 मई 2007 का ड्राफ्ट बस केवल शीर्षक पड़ा था.
         बस, उसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए वसन्त पंचमी के दो दिन बाद उर्वारुक शीर्षक से लिखना शुरू कर रहा हूँ, बीच के दो दिन आलस्य या सोच विचार में निकल गये.
         उर्वारुक= खरबूजा. बचपना याद आया, खरबूजा या खरबूझा मतलब खर=गधे नाम के प्राणी ने ढूँढा. पर वेद ने एक महत्त्वपूर्ण बात बताई. उर्वारुक या खरबूजा जब पकने लगता है तो उसका डण्ठल फल से अलग हो जाता है. बन्धनमुक्त हो जाता है . उसी तरह मानव शरीर भी परिपक्व होजाने पर या पूर्ण अवस्था प्राप्त होने पर बन्धनमुक्त होजाता है. कितना उत्कृष्ट विचार है.
       वृद्धावस्था की ओर अग्रसर होते पुरानी स्मृतियाँ ताजा होने लगती हैं. खास तौर से बचपन की. ऐसी ही यादों का क्रम शुरू हुआ था प्रयागराज की यादों के सथ "यादें" शीर्षक से. उन्ही संस्मरणों को आगे बढाता हूँ "वैज्ञानिक संस्मरणों" (विज्ञान के अर्थात् स्वयं के संस्मरणों) के साथ.
            शुरू करता हूँ एक अहम घटना के साथ जो आयुध निर्माणी कानपुर में घटी थी. इसमें हाइड्रालिक सिस्टम की मूल अवधारणा प्रच्छन्न रूप से चिपकी हुई है  
        तो ऐसा हुआ कि कैपेसिटी आगमेण्टेशन और माडर्नाइज़ेशन के अन्तर्गत आई हुई मशीनों में एक हाइड्रालिक स्लाटिंग मशीन भी थी.  कमीशनिंग केलिये आए विदेशी टैक्नीशियन के साथ एक मशीनिष्ट ट्रेनिंग के लिये दिया गया था. मशीन कमीशन हुई, उस वर्कर की ट्रेनिंग भी हो गई. मशीन पर उत्पादन शुरू हुआ. वही ट्रेनिंग पाया हुआ वर्कर दिन पाली में रहते हुए उत्पादन देने लगा.
       अब उत्पादन बढ़ाने की बात आई. एक अन्य वर्कर को भी ट्रेनिंग  केलिए पुराने वर्कर के साथ लगाया गया. जब  लगा कि नया वर्कर काफी कुछ सीख गया है तो दोनों वर्कर को बारी बारी से दिन और रात की पाली में लगाने की बात तय हुई. पुराना ट्रेनिंग पाया वर्कर रात पाली में गया, पूरा काम हुआ. अब दिन पाली में नया खिलाड़ी , पर बड़ा आश्चर्य मशीन  काम ही नहीं कर रही. पूरा दिन बीत गया पता नहीं ऐसी क्या बात हो गई. रात पाली मशीन पर पूरा काम हुआ, अगला दिन, रात की रिपोर्ट के आधार पर  लगा कि शायद मशीन ठीक हो गई है, लेकिन नहीं मशीन तो अभीभी नहीं चल पा रही. हम सब लोग परेशान और लगे रहे कारण जानने को पर कुछ पता नहीं चल सका.
         हफ्ता निकल गया, रात में मशीन आराम से चले और दिन में दगा. अगले सप्ताह , पाली परिवर्तन, मजे की बात यह कि अब दिन पाली नें मशीन चले और रात में नाराज़. यह सप्ताह भी इसी तरह गया. 
       अगला हफ्ता, सोमवार, दिन ,फिर मशीन नहीं चली. मैकेनिकल, इलेक्ट्रिकल अनुरक्षण के सारे लोग जुट गये.  ऊपर से नीचे आगे पीछे सब घुमा घुमू कर देख डाला. परिणाम यह हुआ कि मशीन सच में नाराज हो गई और अबकी रात में भी काम नहीं हो पाया. परिणाम स्वरूप सारी शक्ति झोंक दी गई, कैटेलाग का गहन अध्ययन शुरू हुआ. मैकेनिकल मेन्टिनेंस का एक स्टाफ जो मशीन ट्रेनिंग पर विदेश भी गया था छुट्टी से लौट कर आया था, उसके ध्यान में कैटेलाग की इस बात पर नजर पड़ी कि हाइड्रौलिक प्रेशर की एक सुनिश्चित सेटिंग रखी गई है. इस दिशा में काम शुरू हुआ. उसी प्रेशर पर सेटिंग की गई, वाह क्या बात है, मशीन फटाफट धड़ल्ले से चल निकली.
        तो मशीन न चल पाने का एक ही कारण था हाइड्रोलिक सेटिंग बदल जाना.यह तो ठीक , पर सेटिंग बदल कैसे जाती थी इसका रोचक विवरण बाद में मालुम हुआ. 
       बात ऐसी थी कि पहले ट्रेनिंग पाये वर्कर को यह पता था कि प्रेशर सेटिंग बदल जाने पर मशीन नहीं चलेगी, वह प्रेशर क्या है यह नहीं पता था. वे महाशय प्रेशर सेटिंग डायल पर एक निशान लगा लिये थे, बाकी यह कि उन्हें रात पाली में भेजा जाय, यह उन्हें नागवार गुजरा. तो अपनी जानकारी का सम्पूर्ण दुरुपयोग करते हुए अपनी पारी में काम करते समय डायल की सेटिंग पकड़ लेते थे और पाली समाप्त होते डायल खिसका देते. अगली  पाली में काम ठप, फिर अपनी पाली में काम हुआ, फिर ठप. मगर जब गहन खोजबीन और मरम्मत की मशक्कत हुई तो महाशय जी का लगाया हुआ निशान मिट गया और वे भी असमर्थ हो गये..
   तो यह थी कथा हाइड्रौलिक प्रेशर सेटिंग की अविच्छिन्न अनिवार्यता की. और साथ ही खास व्यक्तित्व की जिनका स्थान विशेष से सम्बन्ध अनायास जुड़ा रहता है. साथ ही यह कथा हुई एक कनपुरिया व्यक्तित्व की जो एक खास ढर्रे पर चलता है, जिसमें दिमाग का प्रयोग चुपचाप अपने स्वार्थ केलिए और अपनी खुन्नस निकालने के लिये हो जाता है. 
        अपने सतहत्तर  वर्ष के  जीवनकाल में मेरेलिये कानपुर एक बहुत ही विशेष स्थान रखता है. कुल मिलाकर चौबीस वर्ष कानपुर में बिताए हैं, एक वर्ष अध्ययन (१९६१-६२ डीएवी कालेज में MSc. गणित  प्रथम वर्ष ) एक किशोर युवावस्था में प्रवेश करते हुए पारिवारिक सम्बन्धों का मूल्य आत्मसात करता है और मित्रता से वास्ता जोड़ता है. फिर इंजीनियरिंग पढ़ाई के दौरान तृतीय वर्ष के बाद अनिवार्य रूप से ली जाने वाली एक मास की वर्कशाप ट्रेनिंग करने के लिये. मैकेनिकल इंजीनियर हो जाने के बाद, यूपीएससी के माध्यम से आर्डनैंस फैक्टरी सेवा में चयनित होकर  सरकारी सेवा में आयुध निर्माणी कानपुर में प्रारम्भिक चौदह वर्ष जब परिवार बना और बढ़ा . मध्यकाल के आठ वर्ष जब बच्चे किशोर से युवा हुए , अपने कार्यक्षेत्र में आगे बढ़े, और फिर सवा वर्ष वरिष्ठतम अधिकारी के रूप में.  इस सब के बावजूद ईश्वर की कृपा रही कि मैं कनपुरिया नहीं बना.
         बात चल रही थी, स्थान के अनुरूप व्यक्तित्वों की. नौकरी करते हुए भारत के विभिन्न क्षेत्रों यथा आन्ध्र, तेलंगाना, महाराष्ट्र, विदर्भ के लोगों के व्यक्तित्वों से वास्ता हुआ.   इस दौरान जो समझ पाया वह साझा करना रुचिकर होगा.    
           आर्डनैन्स फैक्टरी येद्दुमैलारम ( जिला मेदक ), की घटना है. आफिस में बैठे कुछ काम कर रहा था, अचानक एक विशेष काम का ध्यान आया जो बहुत ही जरूरी महसूस हुआ. कौन उपयुक्त होगा, किससे कराया जाय यह सोचते हुए एक स्टाफ को बुलवाया. वह मेरे  आफिस में आया तो मैने उससे कहना शुरू ही किया था कि वह बोला साहब हो जायगा. मैं बड़े चक्कर में, मैने तो अपनी बात अभी कही भी नहीं,यह कह रहा है हो जाएगा. खैर अपनी बात रोक कर पूछ लिया- क्या हो जाएगा. उस व्यक्ति ने पूरा काम बता दिया, बिलकुल वही जिसे करवाने केलिए मैंने उसे बुलवाया था. बताने लगा कि उसने मेरे आफिस आते आते रास्ते में ही सोच लिया था कि साहब ने क्यों बुलाया होगा. धन्य है.   वह तटवर्ती आन्ध्र क्षेत्र का निवासी था.
            एक दूसरा स्टाफ हैदराबाद का ही निवासी था, उसे जब काम केलिए बुलाया तो उसे पूरी बात बताई, वह आराम से सहज रूप में समझ गया और काम पूरा कर दिया.
            अब विदर्भ क्षेत्र, आर्डनैंस फैक्टरी भण्डारा. आप उस क्षेत्र के किसी भी स्टाफ को बुलवाइये, वह पूर्ण आज्ञाकारी स्वरूप में आपके सामने आकर खड़ा हो जाएगा, आप उसे आद्योपान्त सारी बात बताएंगे, वह सुन जाएगा और स्वीकृति में सिर हिला देगा--हौs . आपको पूछना लाज़मी है कि क्या समझे. वह एकदम शून्य भाव से खड़ा रहेगा पर वह कुछ बता नहीं पाएगा. आप उसे सारी बात फिर से समझा समझा कर बताइये मगर विश्वास करिए कि वह अभी भी कुछ नहीं समझ पाया. आप अब उसे तीसरी बार बतलाइये और पूछिये कि क्या बताया हया- क्या करने को कहा गया. यदि वह आपकी बात दुहरा दे तो ही जानिये कि उसे बात समझ आई है और वह करने का प्रयास करेगा, आप अभी भी निश्चिन्त नहीं हो सकेंगे.
        इस क्षेत्र के लोगों की इस प्रकृति को ही जानकर शायद एक्सप्लोसिव फैक्टरी की स्थापना जवाहर नगर में  की गई, धन्य है स्थापित करने वालों की विचारशीलता और दूर दृष्टि. ध्यान देने योग्य है फैक्टरी और आवासीय परिसर के बीच की पहाड़ी , इसके अलावा पूरी फैक्टरी के क्षेत्र के चारों ओर पहाड़यों की प्राकृतिक सुरक्षा,  और सबसे मजे की बात आसपास रहने वालों को तनिक भी वास्ता नहीं कि यहाँ क्या बनता है. जिस RDX के  मोममिश्रित रूप के आधा किलो पकड़े जाने पर दुनिया का हल्ला मचता है वही परिष्कृत रूप में  टनों में बनता है, प्रतिदिन .
           महाराष्ट्र क्षेत्र का पुणे -- गोला बारूद निर्माणी खड़की  में कार्यरत व्यक्ति जो अपने वरिष्ठ केलिए पूरी श्रद्धा और आदर भाव रखते हुए समर्पित रहता है. एक छोटी सी पर बहुत ही गंभीरता से मेरी बात का समर्थन करने वाली घटना बताता हूँ. एक महाप्रबन्धक महोदय अपने कामगारों में बहुत लोकप्रिय थे, ऐसा वे मानते थे और बड़े फक्र से कहा करते थे कि वे अपने अधीनस्थ कर्मचारियों में से अधिकांश को उनके नाम से जानते हैं. एक बार एक अन्य निर्माणी के वरिष्ठ अधिकारी किसी विशिष्ट काम से खड़की फैक्टरी में आए थे. महाप्रबन्धक जी उन्हें साथ लेकर अनुभाग की ओर चले, रास्ते में बेतकल्लुफी से बात करते हुए कुछ इसी तरह की बात होने लगी, तभी सामने से आते हुए एक वर्कमैन को संबोधित करते हुए बोले-- अरे दामले! क्या हाल है. वह व्यक्ति वहीं रुका, सामने आया, आदरपूर्वक नमन करने के बाद बोला-- सब  आपकी कृपा है. संयोग से तथासंबोधित दामलेजी के अनुभाग के अग्रजन भी महाप्रबन्धक के साथ चल रहे थे, उन्होंने विज़िट पूरी हो जाने के बाद उस वर्कमैन को अपने आफिस नें बुलाया और कहा अरे पुंडले, जीएम साहब तुमको दामले करके बुलाए, तुम मान लिए कि दामले हो कुछ बोले नहीं?  पुंडले जी ने जो उत्तर दिया वह बहुत भावपूर्ण है. कहने लगे कि साहब ने हमें बुलाया यही हमारे लिए बहुत बड़ी बात है, उन्होने दामले पुकारा या वे कामले पुकारते इसमें क्या रखा है. यह कथन सुनने में कुछ अटपटा लगेगा पर उस स्थान के निवासियों की अपने वरिष्ठ केलिए पूर्ण श्रद्धायुक्त भावना को दर्शित करता है. 
         फिर से कानपुर आ जाएँ, आप किसी काम के लिये, सोच विचारकर अपनी समझ से किसी उपयुक्त स्टाफ को बुलाएँ, वह आकर आपकी बात पूरे मनोयोग से सुनेगा,  एक आधा मिनट विचार करेगा और बताएगा कि वह काम कर पाएगा या नहीं. अगर वह कहे कि काम हो जाएगा तो आप निश्चिंत हो जाइये, वह काम उसके माध्यम से बड़े ढंग से सम्पादित हो जाएगा. मगर यदि उसने कहा कि नहीं हो पाएगा तो आप किसी दूसरे को तलाश कर लीजिये क्योंकि उसने तो वह काम नहीं ही करना है सिर्फ इस कारण कि उस काम में उसका कोई स्वार्थ सिद्ध नहीं हो रहा. कानपुरिया दृष्टिकोण.